Monday, May 16, 2011
26 राजेंद्र नगर
मैं आज उस दरवाज़े के बाहर खड़ी थी, जसके अन्दर बच्चपन का एक बहुत ख़ूबसूरत वक़्त गुज़रा था
26 राजेंद्र नगर- मैंने ताला खोलने के लिए हाथ बढाया तो दिल की धड़कने तेज़ हो गयीं थीं, मैं सालों बाद घर में जा रही थी, दरवाज़ा चरमराता सा खुल गया, सामने एक पुराना सा सोफा और एक तखत पड़ा हुआ था, ये वही तखत है जिसपे ना जाने कितनी रचनाएँ लिखीं गयीं, जिसके गद्दे के नीचे से निकले सिक्के कभी हम बच्चों की विरासत हुआ करते थे, उन्ही सिक्कों को ले कर हम साहू की दुकान से कभी kismi bite तो कभी parle orange candy लेने जाते थे।
जी हाँ इसी तखत पर कभी मेरे बाबा हुआ करते थे. अपने आप में एक बहुत अच्छे कवि, बाबा की लिखी हुई कविताओं का संग्रह आज भी मेरे पास है, एक अनमोल धरोहर की तरह
ये वही बैठक है जो कभी आने जाने वालों से रोशन हुआ करती थी, पर आज यहाँ धुल और जालों के सिवाय कुछ भी नहीं है
सामने आँगन है… वही आँगन जिसकी नालियाँ बंद कर हम होली में उसको एक तलब या pool का रूप दे देते थे। वही आँगन जो हर दिवाली रंगोली और दीयों से जगमगाता था, उसी आँगन में दिवाली की पूजा करते थे, हम सब अपनी बारी का इंतज़ार करते थे और फिर दौड़ जाते थे पटाखे बजाने, वही आँगन जहाँ कभी कितने मंडप गड़े थे, कितनी बहुंयें आयीं, बेटियां ब्याही गयीं, आज उस आँगन की फर्श पर दरारें पड़ गयीं हैं और उन दरारों में न जाने कैसे कैसे पेड़ उग आयें हैं, ऊपर के कमरे में जाने वाली सीढ़ी में अब जंक लग गया है।
पीछे वाले कमरे का सामान भी कबाड़ हो रहा है, लकड़ी के दरवाज़े और खिडकियों पर दीमक लगने लगा है, फिर यादें क्यूँ अब भी ताज़ा हैं
पास ही kitchen है ….. इस रसोई में कभी 15- 16 लोगों का खाना बना करता था, और हर चीज़ में एक अलग ही स्वाद होता था, एक ही थाली में न जाने कितने टुकड़ों में बाँट हमने रोटियां खायी हैं
ऊपर छत्त को जाने वाली सीढियां न जाने कितनी ही जगह से टूट गयीं हैं
इसी छत्त से तीन पीढ़ियों ने पतंग उड़ना सीखा..
हम गर्मियों में शाम को पानी से छत्त को ठंडा करते थे, सबके बिस्तर जो यहीं लगाने होते थे, शायद हमे अलग कमरों में सोना तब पसंद नहीं था
तारों के नीचे रात को किस्से, कहानियां सुनते कब नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था
और यही वो छत्त है जहाँ मैंने घरौंदे बनाना सीखा था …..
ये घर बंद रहे की वजह से ख़राब हो रहा है, पापा लोगों का कहना है की अगर इसी तरह बंद रहेगा तो एक दिन अपने आप ही गिर जायेगा
घर जरुर मिट रहा है पर इस से जुडी हर याद एक अलग ही feeling देती है और यही एहसास है जिसकी वजह से हम अलग अलग शहरों में रहते हुए भी एक दुसरे से जुड़े हुए हैं…..
और इसीलिए ये 26 रजेन्द्र नगर एक मकान या एक पता नहीं है, ये एक एहसास है, जो कभी हमारे दिलों से मिटेगा नहीं……………
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
12 comments:
ultimate purane dino ki yaad dila di aapne......kuch bolne ko bhi ni bacha bas wo ghar yaad aaa raha hai :'(
- Sankalp
yaaden to dhrohar hain , pushtaini virasat hai
diwali ka to likh dia.. holi k yaadein kahan hai.. bhul gaye kya kaise aangan talab banta tha..
@ sankalp is ehsas ke aage kchni kaha ja sakta
@ rashmi di- inhi dharoharonko sametne ki ek choti si koshish ki hai
@arpit- beta theek se dekho holi b mentioned hai
बहुत सुन्दर, बेहतरीन,
thanks sanjay ji
भावमय करती शब्द रचना ।
मुझे भी अपने बचपन और गाँव की याद आ गई ......आपसे काफी मिलती -जुलती हमारी भी यादें हैं
यादों को भुलाना कहाँ संभव है। बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति।
मन में बसी अमिट यादें जिसे बिसराया नही जा सकता..सुन्दर प्रस्तुति....
Yad aate hai wo din wo pal...
Jb mahino intjar karte the us mahine ka...
jise ham mahina chutti ka kahte hai,
Aate the kuch pal ke liye hi sahi...kambhkhat lagta tha ek arsa bitane aay hai,
Yad hai aaj bhi wo upar ka chota sa kamra jismme aaj ki party se jada log aa jaya karte the...
Aaj ham mahfilo me bhi aaram dhunta karte hai, tab ghar ki mahfil ka ek kona hi mil jay to sukuun mila karta tha.
Aaj bhi yad hai wo bachpan ke din jab ham muft hi khajane dhuna karte the...
Aur aaj kitno ke asal khajane kho gay... samay hi ni milta uff karne ke liye.
Post a Comment